श्री अनंत नाथ चालीसा लिरिक्स | SHRI ANANTNATH CHALISA LYRICS |
श्री अनंत नाथ चालीसा लिरिक्स
| SHRI ANANTNATH CHALISA LYRICS |
अनन्त चतुष्टय धारी अनन्त,
अनन्त गुणों की खान अनन्त।
सर्वशुध्द ज्ञायक हैं अनन्त,
हरण करें मम दोष अनन्त।
नगर अयोध्या महा सुखकार,
राज्य करें सिहंसेन अपार।
सर्वयशा महादेवी उनकी,
जननी कहलाई जिनवर की।
द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी,
जन्मे तीर्थंकर हितकारी।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर,
न्हवन करें मेरु पर जाकर।
नाम 'अनन्तनाथ' शुभ बीना,
उत्सव करते नित्य नवीना।
सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का,
पार नहीं गुण के सागर का।
वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का,
जान धरें मति-श्रुत-अवधि का।
आयु तीस लख वर्ष उपाई,
धनुष अर्घशन तन ऊंचाई।
बचपन गया जवानी आई,
राज्य मिला उनको सुखदाई।
हुआ विवाह उनका मंगलमय,
जीवन था जिनवर का सुखमय।
पन्द्रह लाख बरस बीते जब,
उल्कापात से हुए विरत तब।
जग में सुख पाया किसने-कब,
मन से त्याग राग भाव सब।
बारह भावना मन में भाये,
ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये।
'अनन्तविजय' सुत तिलक-कराकर,
देवोमई शिविका पधरा कर।
गए सहेतुक वन जिनराज,
दीक्षित हुए सहस नृप साथ।
द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मासा,
तीन दिन का धारा उपवास।
गए अयोध्या प्रथम योग कर,
धन्य 'विशाख' आहार करा कर।
मौन सहित रहते थे वन में,
एक दिन तिष्ठे पीपल-तल में।
अटल रहे निज योग ध्यान में,
झलके लोकालोक ज्ञान में।
कृष्ण अमावस चैत्र मास की,
रचना हुई शुभ समवशरण की।
जिनवर की वाणी जब खिरती,
अमृत सम कानों को लगती।
चतुर्गति दुख चित्रण करते,
भविजन सुन पापों से डरते।
जो चाहो तुम मुयित्त पाना,
निज आतम की शरण में जाना।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित है,
कहे व्यवहार में रतनत्रय है।
निश्चय से शुद्धातम ध्याकर,
शिवपट मिलना सुख रत्नाकर
श्रद्धा करके भव्य जनों ने,
यथाशक्ति व्रत धारे सबने।
हुआ विहार देश और प्रान्त,
सत्पथ दर्शाये जिननाथ।
अन्त समय गए सम्मेदाचल,
एक मास तक रहे सुनिश्चल।
कृष्ण चैत्र अमावस पावन,
भोक्षमहल पहुंचे मनभावन।
उत्सव करते सुरगण आकर,
कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर।
शुभ लक्षण प्रभुवर का 'सेही',
शोभित होता प्रभु-पद में ही।
हम सब अरज करे बस ये ही,
पार करो भवसागर से ही।
है प्रभु लोकालोक अनन्त,
झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त।
हुआ अनन्त भवों का अन्त,
अद्भुत तुम महिमां है 'अनन्त'।
अनन्त गुणों की खान अनन्त।
सर्वशुध्द ज्ञायक हैं अनन्त,
हरण करें मम दोष अनन्त।
नगर अयोध्या महा सुखकार,
राज्य करें सिहंसेन अपार।
सर्वयशा महादेवी उनकी,
जननी कहलाई जिनवर की।
द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी,
जन्मे तीर्थंकर हितकारी।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर,
न्हवन करें मेरु पर जाकर।
नाम 'अनन्तनाथ' शुभ बीना,
उत्सव करते नित्य नवीना।
सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का,
पार नहीं गुण के सागर का।
वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का,
जान धरें मति-श्रुत-अवधि का।
आयु तीस लख वर्ष उपाई,
धनुष अर्घशन तन ऊंचाई।
बचपन गया जवानी आई,
राज्य मिला उनको सुखदाई।
हुआ विवाह उनका मंगलमय,
जीवन था जिनवर का सुखमय।
पन्द्रह लाख बरस बीते जब,
उल्कापात से हुए विरत तब।
जग में सुख पाया किसने-कब,
मन से त्याग राग भाव सब।
बारह भावना मन में भाये,
ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये।
'अनन्तविजय' सुत तिलक-कराकर,
देवोमई शिविका पधरा कर।
गए सहेतुक वन जिनराज,
दीक्षित हुए सहस नृप साथ।
द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मासा,
तीन दिन का धारा उपवास।
गए अयोध्या प्रथम योग कर,
धन्य 'विशाख' आहार करा कर।
मौन सहित रहते थे वन में,
एक दिन तिष्ठे पीपल-तल में।
अटल रहे निज योग ध्यान में,
झलके लोकालोक ज्ञान में।
कृष्ण अमावस चैत्र मास की,
रचना हुई शुभ समवशरण की।
जिनवर की वाणी जब खिरती,
अमृत सम कानों को लगती।
चतुर्गति दुख चित्रण करते,
भविजन सुन पापों से डरते।
जो चाहो तुम मुयित्त पाना,
निज आतम की शरण में जाना।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित है,
कहे व्यवहार में रतनत्रय है।
निश्चय से शुद्धातम ध्याकर,
शिवपट मिलना सुख रत्नाकर
श्रद्धा करके भव्य जनों ने,
यथाशक्ति व्रत धारे सबने।
हुआ विहार देश और प्रान्त,
सत्पथ दर्शाये जिननाथ।
अन्त समय गए सम्मेदाचल,
एक मास तक रहे सुनिश्चल।
कृष्ण चैत्र अमावस पावन,
भोक्षमहल पहुंचे मनभावन।
उत्सव करते सुरगण आकर,
कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर।
शुभ लक्षण प्रभुवर का 'सेही',
शोभित होता प्रभु-पद में ही।
हम सब अरज करे बस ये ही,
पार करो भवसागर से ही।
है प्रभु लोकालोक अनन्त,
झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त।
हुआ अनन्त भवों का अन्त,
अद्भुत तुम महिमां है 'अनन्त'।
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