श्री शीतलनाथ चालीसा लिरिक्स | SHEETALNATH CHALISA LYRICS |
श्री शीतलनाथ चालीसा लिरिक्स
| SHEETALNATH CHALISA LYRICS |
शीतल हैं शीतल वचन,
चन्दन से अघिकाय।
कल्पवृक्ष सम प्रभु चरण,
है सबको सुखदाय।
जय श्री शीतलनाथ गुणाकर,
महिमा मण्डित करुणासागर।
भद्धिलपुर के दृढ़रथ राय,
भूप प्रजावत्सल कहलाए।
रमणी रत्न सुनन्दा रानी,
गर्भ में आए जिनवर ज्ञानी।
द्वादशी माघ बदी को जन्मे,
हर्ष लहर उमडी त्रिभुवन में।
उत्सव करते देव अनेक,
मेरु पर करते अभिषेक।
नाम दिया शिशु जिन को शीतल,
भीष्म ज्वाल अध होती शीतल।
एक लक्ष पूर्वायु प्रभु की,
नब्बे धनुष अवगाहना वपु की।
वर्ण स्वर्ण सम उज्जवलपीत,
दया धर्म था उनका मीत।
निरासक्त थे विषय भोग में,
रत रहते थे आत्मयोग में।
एक दिन गए भ्रमण को वन में,
करे प्रकृति दर्शन उपवन में।
लगे ओसकण मोती जैसे,
लुप्त हुए सब सूर्योदय से।
देख ह्रदय में हुआ वैराग्य,
आतम हित में छोड़ा राग।
तप करने का निश्चय करते,
ब्रह्मार्षि अनुमोदन करते।
विराजे शुक्रप्रभा शिविका पर,
गए सहेतुक वन में जिनवर।
संध्या समय ली दीक्षा अक्षुष्ण,
चार ज्ञान धारी हुए तत्क्षण।
दो दिन का व्रत करके इष्ट,
प्रथमाहार हुआ नगर अरिष्ट।
दिया आहार पुनर्वसु नृप ने,
पंचाश्चर्य किए देवों ने।
किया तीन वर्ष तप घोर,
शीतलता फैली चहुँ ओर।
कृष्ण चतुर्दशी पौष विरव्याता,
कैवलज्ञानी हुए जगत्राता।
रचना हुई तब समोशरण की,
दिव्य देशना खिरी प्रभु की।
आतम हित का मार्ग बताया,
शंकित चित समाधान कराया।
तीन प्रकार आत्मा जानो,
बहिरातन अन्तरातम मानो।
निश्चय करके निज आतम का,
चिन्तन कर लो परमातम का।
मोह महामद से मोहित जो,
परमातम को नहीं मानें वो।
वे ही भव भव में भटकाते,
वे ही बहिरातम कहलाते।
पर पदार्थ से ममता तज के,
परमात्म में श्रद्धा करके।
जो नित आतम ध्यान लगाते,
वे अन्तर आतम कहलाते।
गुण अनन्त के धारी है जो,
कर्मो के परिहारी है जो।
लोक शिखर के वासी है वे,
परमात्म अविनाशी हैं वे।
जिनवाणी पर श्रद्धा धरके,
पार उतरते भविजन भव से।
श्री जिनके इक्यासी गणधर,
एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर।
अन्त समय गए सम्मेदाचंल,
योग धार कर हो गए निश्चल।
अश्विन शुक्ल अष्टमी आई,
मुक्ति महल पहुंचे जिनराई।
लक्षण प्रभु का 'कल्पवृक्ष' था,
त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था।
शीतल चरण शरण में आओ,
कूट विद्युतवर शीश झुकाओ।
शीतल जिन शीतल करें,
सबके भव आताप।
हम सब के मन में बसे,
हरे सकलं सन्ताप।
चन्दन से अघिकाय।
कल्पवृक्ष सम प्रभु चरण,
है सबको सुखदाय।
जय श्री शीतलनाथ गुणाकर,
महिमा मण्डित करुणासागर।
भद्धिलपुर के दृढ़रथ राय,
भूप प्रजावत्सल कहलाए।
रमणी रत्न सुनन्दा रानी,
गर्भ में आए जिनवर ज्ञानी।
द्वादशी माघ बदी को जन्मे,
हर्ष लहर उमडी त्रिभुवन में।
उत्सव करते देव अनेक,
मेरु पर करते अभिषेक।
नाम दिया शिशु जिन को शीतल,
भीष्म ज्वाल अध होती शीतल।
एक लक्ष पूर्वायु प्रभु की,
नब्बे धनुष अवगाहना वपु की।
वर्ण स्वर्ण सम उज्जवलपीत,
दया धर्म था उनका मीत।
निरासक्त थे विषय भोग में,
रत रहते थे आत्मयोग में।
एक दिन गए भ्रमण को वन में,
करे प्रकृति दर्शन उपवन में।
लगे ओसकण मोती जैसे,
लुप्त हुए सब सूर्योदय से।
देख ह्रदय में हुआ वैराग्य,
आतम हित में छोड़ा राग।
तप करने का निश्चय करते,
ब्रह्मार्षि अनुमोदन करते।
विराजे शुक्रप्रभा शिविका पर,
गए सहेतुक वन में जिनवर।
संध्या समय ली दीक्षा अक्षुष्ण,
चार ज्ञान धारी हुए तत्क्षण।
दो दिन का व्रत करके इष्ट,
प्रथमाहार हुआ नगर अरिष्ट।
दिया आहार पुनर्वसु नृप ने,
पंचाश्चर्य किए देवों ने।
किया तीन वर्ष तप घोर,
शीतलता फैली चहुँ ओर।
कृष्ण चतुर्दशी पौष विरव्याता,
कैवलज्ञानी हुए जगत्राता।
रचना हुई तब समोशरण की,
दिव्य देशना खिरी प्रभु की।
आतम हित का मार्ग बताया,
शंकित चित समाधान कराया।
तीन प्रकार आत्मा जानो,
बहिरातन अन्तरातम मानो।
निश्चय करके निज आतम का,
चिन्तन कर लो परमातम का।
मोह महामद से मोहित जो,
परमातम को नहीं मानें वो।
वे ही भव भव में भटकाते,
वे ही बहिरातम कहलाते।
पर पदार्थ से ममता तज के,
परमात्म में श्रद्धा करके।
जो नित आतम ध्यान लगाते,
वे अन्तर आतम कहलाते।
गुण अनन्त के धारी है जो,
कर्मो के परिहारी है जो।
लोक शिखर के वासी है वे,
परमात्म अविनाशी हैं वे।
जिनवाणी पर श्रद्धा धरके,
पार उतरते भविजन भव से।
श्री जिनके इक्यासी गणधर,
एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर।
अन्त समय गए सम्मेदाचंल,
योग धार कर हो गए निश्चल।
अश्विन शुक्ल अष्टमी आई,
मुक्ति महल पहुंचे जिनराई।
लक्षण प्रभु का 'कल्पवृक्ष' था,
त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था।
शीतल चरण शरण में आओ,
कूट विद्युतवर शीश झुकाओ।
शीतल जिन शीतल करें,
सबके भव आताप।
हम सब के मन में बसे,
हरे सकलं सन्ताप।
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